लोक पर्व : आओ जानते हैं उत्तराखंड के घी त्यौहार के बारे में

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भुवन उपाध्याय

देहरादून। प्रकृति एवं पर्यावरण से प्रेम व उसके संरक्षण के साथ ही अभावों में भी हर मौके को उत्साहपूर्वक त्योहारों के साथ ऋतु व कृषि पर्वों के साथ मनाना हमारे उत्तराखंड की पहचान रही है। यहां प्रचलित हिंदू विक्रमी संवत की हर माह की पहली तिथि (एक पैट/एक गते) को संक्रांति पर्व (चैत्र एवं श्रावण संक्रांति को हरेला तथा मकर संक्रांति को घुघुतिया-उत्तरायणी) त्योहार की तरह मनाए जाते हैं। इसी कड़ी में भाद्रपद मास की संक्रान्ति यहां घी-त्यार या घृत-संक्रांति एवं ओलगिया के रुप में मनाई जाती है।

हरेला पर्व की तरह कृषि से जुडा त्यौहार है घी त्यार

घी-त्यार (घी-त्यौहार) हरेला की तरह मूलतः एक ऋतु एवं कृषि पर्व ही है लेकिन इसमें मानव सभ्यता, खासकर घर के पारिवारिक सदस्यों व उनमें भी बच्चों को पोषक तत्वों की भरपूर मात्रा देकर उन्हें पुष्ट बनाने का भाव है। हरेला जहां चैत्र एवं श्रावण संक्रांति के मौकों पर मनाया जाता है और बीजों को बोने और वर्षा ऋतु के आगमन का प्रतीक त्यौहार है, वहीं घी-त्यार बीजों के नई फसलों में बालियों के रूप में फलीभूत हो जाने-लहलहाने पर उत्साहपूर्वक मनाया जाने वाला लोक पर्व है। इस पर्व तक फसलों के साथ ही पहाड़ों में अखरोट, सेब, माल्टा, नारंगी आदि ऋतु फलों के साथ ही ककड़ी (खीरा), लौकी व तुरई आदि बेलों पर लगने वाली सब्जियां भी तैयार होने लगती हैं। बरसात के दिन होने की वजह से पशुओं के लिए पर्याप्त मात्रा में हरी घास के चारे की भी पर्याप्त मात्रा रहती है। गौशाला में गाय-भैंस खूब दूध दे रहे होते हैं। घर में दूध, दही, घी-मक्खन भी भरपूर होता है। वहीं दूसरी ओर बदलते बारिश के मौसम में संक्रामक रोगों की आशंका भी सिर उठा रही होती है, ऐसे में पहाड़ के लोग फसलों के पकने और घर में भरपूर पशुधन की उपलब्धता से आनंदित हो घी-त्यार या घी-संक्रांति मनाते हैं। अखरोट की नई फसल के फलों को तो इसी दिन से खाना शुरू करने की परंपरा है। घी-त्यार के दिन खास तौर पर पहाड़ी दाल मांस यानी उडद को भिगो और पीस कर तैयार की गई पिट्ठी को कचौड़ियों की तरह भरकर बनाई जाने वाली बेड़ू रोटी गाय के शुद्ध घी के साथ डुबोकर खाई जाती हैं।  पिनालू (अरबी) की नई अधखुली कोपलों (गाबे) की मूली आदि मिलाकर बनी सब्जी भी इस मौके पर बनाने की परंपरा है। कोमल और बंद पत्तियों की सब्जी भी इस दिन विशेष रुप से बनाई जाती है। इस अवसर पर किसी न किसी रुप में घी खाना अनिवार्य माना जाता है, इसलिए लगड़ (पूरी), पुवे, हलवा आदि भी प्रसाद स्वरूप शुद्ध घी से ही तैयार किए जाते हैं।

मान्यता : घी न खाने वाला अगले जन्म में गनेल (घोंघा) बन जाता है

ऐसी भी मान्यता है कि जो व्यक्ति इस दिन घी नहीं खाता, वह अगले जन्म में गनेल (घोंघा) बन जाता है। गाय के घी को प्रसाद स्वरुप सिर पर रखा जाता है और छोटे बच्चों की तालू (सिर के मध्य) में भी मला जाता है। माना जाता है कि भोजन के साथ ही सिर पर घी मलने से बच्चे शरीर के साथ ही मस्तिष्क से भी मजबूत बनते हैं।